लेखनी कविता - बिरह
बिरहन सी हुई मैं
हृदय व्यथित मेरा है
प्रेम की छाया नहीं
मन कलुषित हुआ है..
आच्छादित जीवन मेरा
मन भी विलग हुआ है
प्रेम की तृष्णा समाप्त हुई
अब एकांत ही जीवन मेरा है
शांत खाली अंबर को तकना
अंधेरी काली रात में जगना..
मिलते थे कभी-कभी
चांद और सूरज मुझे
मेरी बातों पर
कभी हंसते कभी रोते...
अब वार्तालापों से मुक्त देख मुझे
बेचैनी सी उन्हें होती है
इतना चुप कभी देखा नहीं ना
उन्हें मेरी बातों की कमी सी होती है..
उनका मुझे यूँ तकना
व्यथित सा करता है
मैं कहती हूं खुद से ही
कोई इतना भी शांत रहता है..
फिर खुद ही खुद को समझाती हूं
कुछ बातें खुद को बताती हूं
कहती हूं कि सुनों...
हृदय की यातनाओं से इतना
दुःखित नहीं होते..
पीड़ित हो भी तो पीड़ित नहीं होते
दुखों से ऊपर उठना ही तो जीवन है
तुम जीवित होकर जीवन का हनन
क्यों कर रही होहो...
तुम स्त्री हो पेड़ों का समुंदर
तुम्हारे हृदय में बसता है
परंतु प्रेम का उद्गम भी तो
यहीं से निकलता है...
अपूर्वा शुक्ला ✍✍
# प्रतियोगिता स्वैच्छिक
Sushi saxena
19-Nov-2022 02:21 PM
Nice 👍🏼
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Apoorva Shukla
19-Nov-2022 07:40 PM
Thanks
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आँचल सोनी 'हिया'
18-Nov-2022 12:11 AM
बहुत अच्छा लिखा है मैम आपने
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Apoorva Shukla
18-Nov-2022 03:34 PM
Thanks ma'am
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डॉ. रामबली मिश्र
17-Nov-2022 10:18 PM
बहुत खूब
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Apoorva Shukla
18-Nov-2022 03:34 PM
Shukriya
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